पद त्यागने के निर्णय पर टिके रहना ही राहुल गांधी को सम्मान दिला सकता है

आशुचित्र- यदि ईमानदारी से सोचेंगे तो राहुल गांधी जान जाएँगे कि वे अपरिहार्य नहीं हैं।
राहुल गांधी ने जो कुछ प्रशंसनीय चीज़ें की हैं, उनमें से एक है पद त्यागने के अपने निर्णय पर टिके रहना। और उनके कथित शुभचिंतक उन्हें इस निर्णय से भटकाने का प्रयास कर रहे हैं, वे सबसे बुरी चीज़ कर रहे हैं।
राहुल गांधी हमेशा से एक अनिच्छुक राजनेता रहे हैं। एक देश जहाँ राजनीति एक पूर्णकालिक कार्य है, प्रायः 24X7 का पेशा, वे संभवतः इसके लिए तैयार नहीं थे। उनकी माँ भी पहले अनिच्छुक थीं लेकिन एक बार अपनी अनिच्छा को त्यागकर औपचारिक राजनीति में प्रवेश करने के बाद उन्होंने पार्टी को नियंत्रित रखा, वहीं राहुल ऐसा करने में असमर्थ हो गए। वे न तो कमांड और नियंत्रण के नेतृत्व के लिए उपयुक्त हैं और न ही पूर्ण रूप से लोकतांक्षिक राजनीति के लिए।
पिछले दो वर्षों में अत्यधिक सक्रिय देखे गए राहुल ने अपने राजनीतिक कतनों को गलत मुद्दों के आसपास सीमित रखा। चाहे वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का बचाव करना हो या नरेंद्र मोदी के विरुद्ध ‘चौकीदार चोर है’ का नारा लगाना हो, या ‘सूट-बूट की सरकार’ कहकर आलोचना करना हो, यह सभी उनकी क्षीण विवेक को दर्शाता है। आप अपने विरोधी के मज़बूत प7 पर वार नहीं करते हैं- राष्ट्रवाद और व्यक्तिगत छवि। नरेंद्र मोदी को व्यापारियों की कठपुतली बताने का राहुल गांधी का प्रयास तर्कहीन था, जबकि सब जानते थे कि वास्तव में यह यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) के लिए उपयुक्त कथन है।
संभव है कि राहुल गांधी अपने पिता पर से बोफोर्स के दाग को हटाने का प्रयास कर रहे थे और उनकी माँ के नेतृत्व में भ्रष्टाचार-पीड़ित यूपीए-1 व 2 का कलंक, नरेंद्र मोदी पर कीचड़ उछाल कर साफ करना चाह रहे थे लेकिन यह सफल नहीं हुआ।
स्पष्ट रूप से, राहुल सही और गलत सलाह में अंतर करना नहीं जानते हैं। कोई भी राजनेता जो यह नहीं परख सकता कि उसके सहयोगियों में से किसपर विश्वास किया जाना चाहिए और किसपर नहीं वह सफल नहीं हो सकता। राहुल गांधी की विफलता का यह एक प्रमुख कारण रहा और वे इसे किसी और से बेहतर समझते हैं। उनके मनोभाव सही हैं कि राजनीति उनके लिए नहीं है।
यदि कई लोग, पार्टी के भीतरी या विपक्षी दलों के नेता, राहुल को उच्च पद पर बनाए रखना चाहते हैं तो इसमें उनका स्वार्थ निहित है, वे कांग्रेस के हित में नहीं सोच रहे हैं। उनके निकट सलाहकारों और उनके चमचों की व्याकुलता समझ आती है। यदि राहुल सत्ता से बाहर हो जाएँगे, तो उनके कद में भी गिरावट आएगी।
द्रमुक के एमके स्टालिन और राजद के लालू प्रसाद यादव के बयानों को देखकर लगता है कि क्यों उन्हें राहुल गांधी विपक्षी गठबंधन के लिए महत्त्वपूर्ण लगते हैं। स्टालिन ने और ऊपर जाकर यह तक कह दिया कि राहुल भले ही चुनाव हार गए हों, लेकिन वे लोगों का दिल जीत गए हैं, वहीं लालू ने कहा कि राहुल गांधी के पद त्यागने से न सिर्फ कांग्रेस को हानि पहुँचेगी बल्कि पूरे विपक्ष का नुकसान होगा।
यह एक बेतुकी बात है। यदि राहुल सच में लोगों का दिल जीतते तो कम से कम अपनी अमेठी की सीट तो नहीं हारते। इसके विपरीत लोगों को अश्चर्य होता है कि राहुल ने अमेठी के मतदाताओं से संपर्क स्थापित क्यों नहीं किया जबकि ईरानी 2014 से लगातार ऐसे प्रयास करती नज़र आईं। अवश्य ही उनमें कोई अहम रहा होगा जिसने उन्हें ऐसा करने से रोका। उन्हें लगा उनके पीठ पीछे मतादात अपना पाला नहीं बदलेंगे और उन्होंने ज़बरदस्त प्रचार नहीं किया। वायनाड़ से लड़ने के उनके निर्णय ने भी लोगों के मन में ईरानी का पक्ष लेने के विचार को सुदृढ़ किया होगा।
लालू और स्टालिन द्वारा राहुल का समर्थन करने के दो कारण हो सकते हैं- पहला, राहुल को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार मानने वालों को यह बात शर्मसार कर रही है कि उनके इस विचार को पूरे भारत ने नकार दिया है। दूसरा यह कि लालू और स्टालिन दोनों ही वंशवादी राजनीति के प्रणेता व लाभार्थी हैं जिसका उन्हें मोदी लहर में नुकसान हुआ है। उनकी वैधता तभी स्थापित हो सकती है, जब वे कांग्रेस के वंशवाद को वैध बताएँ।
यह चिह्नित करना संभव है कि वंशवाद की राजनीति भाजपा में भी है जहाँ पुत्र पिता के पद पर आगे बढ़ता है लेकिन एक बड़ा अंतर है। भाजपा के सभी वंश क्षणिक हैं और कोई एक पार्टी को नियंत्रित नहीं करता है। ऐसा द्रमुक, राजद, शिवसेना, लोजपा, एनसीपी, सपा, टीआरएस, जेडी(एस), रालोद, आदि में नहीं है।
राहुल को जानना चाहिए कि उनके शुभचिंतक असल में उनके शुभचिंतक नहीं हैं और वे उनका समर्थन अपने संकीर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर रहे हैं। इसलिए उन्हें कांग्रेस में सक्रिय पद को त्यागने के अपने निर्णय पर टिके रहना चाहिए, हालाँकि सांसद के पद को त्यागने का कोई औचित्य नहीं है, अन्यथा वे राजनीति से ही बाहर होना चाहते हों।
वास्तविक जीवन में राजनीतिक रिक्तियाँ जल्द ही भर जाती हैं, यदि राहुल नहीं होंगे तो निश्चित रूप से पार्टी कोई नया नेता चुन लेगी। अगर यह विभाजित हो जाती है तो हम कई क्षेत्रीय कांग्रेस पार्टियों को उभरता हुआ देखेंगे। यदि ईमानदारी से सोचेंगे तो राहुल गांधी जान जाएँगे कि वे अपरिहार्य नहीं हैं। इस बात को मानकर वे सबसे बड़ी और सबसे विनम्र चीज़ करेंगे।
यदि विपक्षी इसे बुरी दृष्टि से देखते हैं तो वे अत्यंत मूर्ख हैं। भारतीय जनता उन्हें प्राथमिकता देती है जो कुरसी का सत्ता को ठुकरा देते हैं। उनकी माँ ने 2004 में ऐसा गलत तरीके से किया था जब उन्होंने प्रधानमंत्री का पद त्यागकर अपने अधीन एक प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। राहुल को यह अनिश्चित मार्ग नहीं अपनाना चाहिए।
जगन्नाथन स्वराज्य के संपादकीय निदेशक हैं। उनका ट्वीटर हैंडल @TheJaggi है।