असम एनआरसी के आलोचक क्यों हैं बेहद गलत

प्रसंग
- बावजूद इसके, कि जो एनआरसी अद्यतन की प्रक्रिया के कई आलोचक कह रहे हैं, 40 लाख लोगों को मताधिकार मिलने की संभावना कम है यानी कि अपने अधिकारों को खोने की संभावना है।
सोमवार (30 जुलाई, 2018) को सुबह 10 बजे असम में नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के अंतिम मसौदे को सार्वजनिक किए जाने के कुछ ही समय बाद कई राजनेताओं और संगठनों ने एनआरसी का विरोध करते हुए और आलोचना करते हुए विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। उनकी मुख्य चिंता उन 40 लाख लोगों का भविष्य है, जिनके नाम एनआरसी के अंतिम मसौदे में शामिल नहीं हैं। लेकिन आलोचना निराधार है और उस विशाल प्रक्रिया के संवैधानिक, कानूनी, प्रक्रियात्मक और अन्य पहलुओं के ज्ञान, समझ और मूल्यांकन की कमी पर आधारित है जिसमें 55,000 राज्य सरकारी कर्मचारियों ने सूची को संकलित करने के लिए तीन वर्षों से अधिक समय तक कठिन मेहनत की है।
यहां उन सभी के लिए एक त्वरित मार्गदर्शिका है जो इस अभ्यास के बारे में अधिक जानना चाहेंगे:
क्या है एनआरसी?
नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर भारत के सभी नागरिकों की एक व्यापक सूची है। इसे 1951 में देश की प्रथम जनगणना के बाद उसी वर्ष पूरे भारत के लिए पहली और आखिरी बार तैयार किया गया था। भले ही इसे तब से हर दशक में अपडेट किया जाना चाहिए था, लेकिन किया कभी नहीं गया।
असम में एनआरसी अपडेट का कार्य क्यों किया गया?
अद्यतन का यह पूरा का पूरा कार्यक्रम 1985 के असम समझौते की उपज है जो असम के विदेशी विरोधी अभियान के नेताओं और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की उपस्थिति में केंद्र सरकार के बीच हुआ था। इस आंदोलन को असम में अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की बड़े पैमाने पर उपस्थिति के खिलाफ छात्र निकायों और अन्य संगठनों द्वारा शुरू किया गया था। इस प्रवासन का आकार इतना बड़ा था कि असम के मूल निवासियों ने अपनी स्वयं की भूमि पर अल्पसंख्यक रूप में सिमटने की संभावनाओं का सामना किया। असम समझौते ने असम की मिट्टी से सभी ‘विदेशियों’ (अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों) का पता लगाने और उन्हें निर्वासित करने का आश्वासन दिया।
इस तरह के ‘विदेशियों’ को खोजने के लिए लिए अंतिम तिथि (कट-ऑफ डेट) मध्यरात्रि 24 मार्च 1971 निर्धारित की गयी, जब बांग्लादेश औपचारिक रूप से अस्तित्व में आया। कई बाधाओं, जिसमें राज्य में कॉंग्रेस शासनों द्वारा जानबूझकर अड़ंगा लगाने के लिए शुक्रिया, के बाद असम समझौते के तहत सहमति के अनुसार असम के लिए एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया में देरी हुई। आखिरकार, असम के मुस्लिम-वर्चस्व वाले बारपेटा जिले में एक प्रारम्भिक परियोजना शुरू की गई, लेकिन ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन के नेतृत्व में अल्पसंख्यक संगठनों द्वारा की गयी भीषण हिंसा के बाद यह कार्य बाधित हो गया।
लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने अंततः हस्तक्षेप किया और असम के लिए एनआरसी अपडेट करने के लिए भारत के रजिस्ट्रार जनरल (आरजीआई) को आदेश दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके लिए हर प्रकार की मदद मुहैया कराने का आदेश भी दिया। तब से सर्वोच्च न्यायालय इस पूरे कार्य की कठोरता से निगरानी करता रहा है और इसे पूरा करने के लिए सख्त समय सीमा निर्धारित की है। न्यायालय ने कार्य को पूरा करने के लिए अधिक समय की मांग की सरकार द्वारा याचिका को भी ठुकरा दिया है।
इस प्रकार, असम में एनआरसी अद्यतन का कार्य सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आदेशित है और इसकी निगरानी में हुआ है एवं 1985 के असम समझौते के अनुसार किया गया है। इस कार्य की कोई भी आलोचना सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना के समान है।
बांग्लादेश से प्रवास क्यों और कैसे शुरू हुआ?
यह भारत पर ब्रिटिश शासन के दौरान शुरू हुआ। तत्कालीन पूर्वी बंगाल से अंग्रेज़ बड़ी संख्या में शिक्षित बंगाली हिंदुओं को लेकर आए जिन्हें सरकारी कार्यालयों और चाय बगानों तथा तेल संस्थानों सहित विभिन्न निजी संस्थानों में क्लर्क के रूप में नियुक्त किया गया। लेकिन उन्होंने भूतपूर्व पूर्वी बंगाल से हज़ारों बंगाली-भाषी-मुस्लिम किसानों को भी असम में बसने के लिए प्रोत्साहित कर दिया कि वे वहाँ बंजर और वन्य भूमि पर खेती कर सकें। असम के मुस्लिम नेताओं, विशेष तौर पर मुस्लिम लीग (जिसने असम क्षेत्र पर शासन किया था) के सर सादुल्लाह, ने इस खेल में प्रवेश किया और क्षेत्र की जनसांख्यिकीय रूपरेखा को बदलने के लिए बड़े पैमाने पर मुसलमानों के प्रवास को प्रोत्साहित किया। उनका उद्देश्य पूर्वी पाकिस्तान में असम को शामिल करने के दावे को मजबूत करना था।
विभाजन के दौरान, बड़ी संख्या में बंगाली हिंदू असम में जाकर बस गए, और पूर्वी पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं के धार्मिक उत्पीड़न के कारण यह प्रवास जारी रहा। मार्च 1971 में पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा शुरू किए गए कुख्यात नरसंहार ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ की वजह से बंगाली हिन्दुओं की एक और बड़ी संख्या 1971 में असम में घुस आई।
लेकिन बंगाली हिंदुओं की तुलना में कहीं अधिक बंगाली-भाषी-मुसलमान सीमा पार कर असम में आ गए, जिससे राज्य की जनसांख्यिकी में आकस्मिक बदलाव आया। राज्य में अनुवर्ती कांग्रेस सरकारों ने वोट-बैंक की राजनीति के नाम पर इस अवैध प्रवास को प्रोत्साहित किया। ये अवैध मुस्लिम प्रवासी कांग्रेस के लिए वोट बैंक थे और कॉंग्रेस असम में इन अवैध प्रवासियों के समर्थन पर राज्य की सत्ता में बरकरार रही। इन प्रवासियों को असम में विदेशी कहा जाता था।
असम में कैसे शुरू हुआ विदेशी-विरोधी आंदोलन
कई वर्षों से असम में लाखों अवैध प्रवासियों की उपस्थिति के खिलाफ असंतोष पैदा हो रहा था और यह गुस्सा समय के साथ बढ़ ही रहा था, क्योंकि अवैध प्रवासी अनिर्धारित अंतरराष्ट्रीय सीमा के माध्यम से लगातार अंदर आ रहे थे और राज्य में शासन कर रही कांग्रेस की उत्तरोत्तर सरकारों ने इसे रोकने या उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने या रोकने के नाम पर कुछ नहीं किया, जो पहले से ही अवैध रूप से राज्य में प्रवेश कर चुके थे।
मार्च 1977 में, जनता पार्टी के हीरालाल पटवारी ने मंगलडोई लोकसभा सीट पर जीत हासिल की। उस समय, उस निर्वाचन क्षेत्र में 5,60,297 पंजीकृत मतदाता थे। पटवारी की मौत के कारण 1979 में उस विधानसभा क्षेत्र में उप-चुनाव की आवश्यकता आन पड़ी। लेकिन असम के लोग यह जानकर आश्चर्यचकित हो गए कि सिर्फ 14 महीनों के दौरान, उस निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में 80,000 मतदाता बढ़ गए थे! यह व्यापक रूप से माना जाता था कि कांग्रेस इस शरारत के पीछे थी और उसने अपने उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने के लिए ऐसा किया था।
असम के लोग इससे क्रोधित हुए और एक आंदोलन शुरू किया जिसने राज्य को छह साल तक के लिए अपाहिज कर दिया और इसके परिणामस्वरूप कई मौतें हुईं। आखिरकार, असम समझौते ने आंदोलन को समाप्त कर दिया। लेकिन समझौते का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान, विदेशियों का पता लगाना और उनका निर्वासन, तब तक सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहा जब तक कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा आदेशित एनआरसी अद्यतन का कार्य 2015 की शुरुआत में प्रारम्भ नहीं हो गया।
एनआरसी को कैसे अपडेट किया गया है?
आरजीआई ने मार्च 1971 तक चुनावी दस्तावेजों के आधार पर नागरिकों का एक व्यापक डेटाबेस तैयार किया और इसे सार्वजनिक कर दिया। एनआरसी में अपना नाम शामिल करवाने के लिए सभी आवेदकों को प्रमाण प्रस्तुत करना था कि वे या उनके माता-पिता या दादा-दादी, उस डेटाबेस में दिखाए गए थे।
आरजीआई ने पासपोर्ट, भूमि स्वामित्व दस्तावेज, बैंक या डाकघर जमा रिकॉर्ड, एलआईसी प्रमाण पत्र, शिक्षा प्रमाण पत्र और ड्राइविंग लाइसेंस जैसे 14 दस्तावेज़ सूचीबद्ध किए, जिन्हें नागरिकता के सबूत के रूप में स्वीकार किया जाता। यदि इनमें से कोई भी दस्तावेज 24 मार्च 1971 या उसके पहले की तारीख के होते, तो वे इस बात का पर्याप्त प्रमाण होते कि वह व्यक्ति कट-ऑफ की तारीख तक असम का निवासी था। इसके बाद के दस्तावेजों की जाँच की गई और उनमें से कई दस्तावेज़ ऐसे पाये गए जो धोखाधड़ी से प्राप्त किए गए थे। ऐसे लाखों मामलों का पता चला और इसलिए, ऐसे आवेदनों को निरस्त कर दिया गया।
उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति ने 2010 में जारी एक पासपोर्ट जमा किया लेकिन यह सबूत जमा नहीं कर सका कि उसके पिता 24 मार्च 1971 से पहले असम के निवासी थे, तो आवेदन अस्वीकार कर दिया जाता था। बड़ी संख्या में आवेदकों ने उन लोगों के वंशज होने का दावा किया जिनके नाम 1971 में चुनावी दस्तावेजों में थे, लेकिन दावों को झूठा पाया गया। सत्यापन प्रक्रिया ने ऐसे कई मामलों को भी हटा दिया जिनमें राज्य के विभिन्न हिस्सों के लोगों ने धोखाधड़ी करते हुए एकसमान माता-पिता की संतान होने का दावा किया था।
इस प्रकार आवेदनों को स्वीकार या अस्वीकार करने से पहले कई दस्तावेजों को सत्यापित किया जाता था और कई बार क्रॉस-चेक किया जाता था। यह एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया थी जिसमें बहुत लंबा समय लगा था।
पासपोर्ट और ईपीआईसी (निर्वाचन फोटो पहचान पत्र या मतदाता पहचान पत्र) जैसे दस्तावेजों को नागरिकता के स्वतः प्रमाण के रूप में क्यों नहीं स्वीकार किया गया था?
क्योंकि, नागरिकता के प्रमाण के रूप में (और इस प्रकार एनआरसी में नाम शामिल करने के संलग्नक के रूप में) जमा किए गए लाखों दस्तावेजों के दोबारा-सत्यापन से पता चला है कि उन्हें धोखाधड़ी से प्राप्त किया गया था। यह सर्वविदित है कि असम और बंगाल में बांग्लादेश से आए लाखों अवैध प्रवासियों के सैलाब ने राशन कार्ड, आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, मतदाता पहचान पत्र, और यहां तक कि पासपोर्ट भी धोखाधड़ी से ही प्राप्त किए गए हैं। इन दस्तावेजों को हासिल करने में उन्हें, तुच्छ राजनीतिक हितों के लिए (वोट बैंक को सुरक्षित करने और उनका निर्माण करने के लिए) राजनेताओं या भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा मदद मिली है। इसलिए, आरजीआई ने फैसला लिया कि एनआरसी में इन दस्तावेजों को जमा कर देने मात्र से ही आवेदकों के नामों को स्वचालित रूप से शामिल नहीं किया जाएगा। दस्तावेजों को डेटाबेस के साथ मिलान करने के बाद दोबारा-सत्यापन करके सत्यापित किया जाएगा। केवल उन दस्तावेजों को ही नागरिकता के सबूत के रूप में एकदम स्पष्ट माना जाएगा जो मार्च 1971 और उससे पहले के हों।
उन लोगों का क्या, जिनके नाम को एनआरसी के मसौदे से बाहर रखा गया है?
करीब 40 लाख लोग ऐसे हैं जिनके आवेदन अस्वीकार कर दिए गए हैं। उन्हें 30 अगस्त और 28 सितंबर के बीच निर्धारित प्रपत्रों में अपने दावों को फिर से प्रस्तुत करने का मौका दिया जाएगा। यदि उनके दावों को वास्तविक पाया जाता है, तो इन्हें एक बार फिर से सत्यापित किया जाएगा और उनके नाम अंतिम एनआरसी में शामिल कर दिए जाएंगे। एनआरसी के इस वर्ष के अंत तक प्रकाशित होने की उम्मीद है।
अंतिम एनआरसी के प्रकाशन के बाद, जिनके नाम फिर भी उस सूची में नहीं हों वे असम में फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल से संपर्क कर सकते हैं और यदि ट्रिब्यूनल के फैसले से भी असंतुष्ट हों, तो गौहाटी उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकते हैं। यह एक लंबी प्रक्रिया है और, इस प्रकार, एनआरसी अद्यतन प्रक्रिया के आलोचकों की आलोचनाओं के बावजूद 40 लाख लोगों को नागरिकता मिलने की संभावना बहुत कम है और आने वाले दिनों में उनके राज्यविहीन होने की संभावना है।
जयदीप मजूमदार स्वराज में एक सहायक संपादक हैं।