पाणिनिकालीन भारत में किस प्रकार के यज्ञ होते थे (भाग 4)

य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजन्त दे॒वास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन्।
ते ह॒ नाकं॑ महि॒मान॑ः सचन्त॒ यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्याः सन्ति॑ दे॒वाः॥
– ऋग्वेद, 10.090.16
“यज्ञ के मार्ग से ही देवों ने पुरुष-यज्ञ की साधना की। इसी कारण, उनके द्वारा आचरण किए गए यज्ञमार्ग ही आद्य या प्रथम धर्म कहलाए। अतः, जो इस यज्ञरूपी शुचिमार्ग का आचरण करेंगे, वे सिद्ध पुरुष और देवताओं के सन्निध्य से भरे हुए ‘नाक’ या स्वर्ग को प्राप्त होंगे।”
प्राचीन विद्वान् कहते हैं, “वेदो हि अखिलं धर्ममूलम्”, यानी कि वेद ही समस्त धर्म का मूल हैं। सनातन वैदिक परंपरा का यज्ञमार्ग से परिपूर्ण आचरण का प्राचीन काल से अत्यंत विशेष महत्व है। हमने पिछले भाग में देखा कि आचार्य पाणिनि के काल में शिक्षण-पद्धति वेदों के अध्ययन पर अतीव महत्व देती थी।
यज्ञयागादि कर्मों का सम्यक् अनुष्ठान वेदाध्ययन का एक प्रमुख विषय है। वैदिक साहित्य से जुड़े ऐसे कर्मकांड का विस्तार इतना बड़ा था, कि उसकी व्यापक छवि भारतीय इतिहास-परंपरा और विज्ञान तक पर सर्वत्र दिख पड़ती है। अतः प्राचीन भारत का सही बोध होने के लिए इसका परिचय अनिवार्य है।
पाणिनीय व्याकरण के दर्शन में हमने यह उल्लेखित किया था कि पाणिनीय व्याकरण में भी वैदिक ऋचाओं का सही अर्थ बनाए रखने के लिए, पाणिनीय अष्टाध्यायी में विशेष नियमों का प्रावधान किया गया था। स्वाभाविक रूप से आचार्य यज्ञानुष्ठानों से भली-भाँति परिचित थे।
उनके व्याकरण में इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। अतः, इस भाग में हम, आचार्य पाणिनि की रचनाओं के साथ, उनसे भी प्राचीन, उनके समकालीन और समीपकालीन स्रोतों के आधार पर सनातन धारा के इस याज्ञिक प्रवाह का दर्शन करेंगे।
कल्पशास्त्र का अतिसंक्षिप्त परिचय
वेदों से संबंधित छह अलग-अलग ‘अंग’ हैं, जिनमें से एक व्याकरण का हमने द्वितीय भाग में दर्शन किया। ‘कल्पशास्त्र’ वह अंग है, जिसका प्रमुख प्रयोजन कर्मकांड के सही क्रियान्वन का ध्यान रखना है। चारों वेद (ऋक्, यजुस्, साम व अथर्व) वेदों के अपने-अपने विशेष कल्पग्रंथ हैं। यह सभी ग्रंथ आचार्य पाणिनि से भी प्राचीन काल में रचे गए थे।
जिस प्रकार पाणिनीय अष्टाध्यायी व्याकरण-शास्त्र का विमर्श सूत्र-रूप में करती है, वैसे ही हर वेद से जुड़ा हुआ कल्पशास्त्र भी अपने-अपने सूत्र-ग्रन्थों में बँटा है। प्रत्येक वैदिक शाखा में, कल्पशास्त्र के ४ मुख्यग्रन्थ सम्मीलित हैं– ‘गृह्यसूत्र’ या ‘स्मार्तसूत्र’,’श्रौतसूत्र’ (श्रुति = वेदसंहिता), ’शुल्बसूत्र’ (शुल्ब = नाँपना, मोल करना), और ’धर्मसूत्र’। प्रत्येक का अपना-अपना अधिकार क्षेत्र और उत्तरदायित्व है।
‘धर्मसूत्र’ वे ग्रंथ हैं, जिनमें भारतीय परंपरा का न्यायिक दृष्टिकोण जन्म लेता है। प्राचीन काल की न्यायपालिका में उपयोग की जाने वाली प्रायः सभी स्मृतियाँ और नीतिग्रंथ जैसे याज्ञवल्क्य, नारद, मनु जैसे स्मृतिग्रन्थ व शुक्र और चाणक्य के नीतिग्रन्थ इन ही धर्मसूत्रों पर आधारित हैं।
‘शुल्बसूत्रों’ की विशेषता यह है कि यह केवल भारत ही नहीं बल्कि समुची मानव-सृष्टि में गणित के पहले ‘पाठ्यपुस्तक’ हैं। प्राचीन यूनान में भूमिति (geometry) के विस्तृत अध्ययन के प्रारंभ के 300 वर्ष पूर्व ही ‘बौधायन शुल्बसूत्र’ में त्रिकोणों का सुनियोजित अध्ययन किया गया था, और अंकगणित एवं बीजगणित के मूल इसमें ही समाविष्ट हैं। इन ही शुल्बसूत्रों से आगे वास्तुशास्त्र और स्थापत्यशास्त्र का निर्माण हुआ।
सनातन परंपरा में व्यक्ति के इहलौकिक और परलौकिक कल्याण में कोई भी भेद नहीं माना गया है। अतः शुल्बसूत्र व धर्मसूत्र दोनों ही दैनंदिन महत्व रखनेवाले विषयों (गणित व न्यायसत्ता) का अध्ययन करते हुए भी धार्मिक विधियों में सर्वत्र उपयोग में लाए जाते। शेष दो सूत्रग्रंथ– गृह्य (स्मार्त) एवं श्रौत सूत्रों का मूल दृष्टिकोण यज्ञ-यागादि कर्मों के द्वारा देवताओं को तृप्त करके विश्वकल्याण का मार्ग प्रशस्त करना है।
यज्ञों का विस्तार – पाणिनिकालीन संदर्भों के साथ विवरण
‘यज्ञ’ शब्द की उत्पत्ति ‘यज्’ धातु से होती है (अष्टाध्यायी सूत्र 3।3।90॥) । ‘यज्’ का अर्थ है ‘देवों की पूजा-अर्चना करना’। अतः ‘यज्ञ’ का अर्थ है– जिस क्रिया से देवताओं को योग्य संतुष्टि प्राप्त हो। यज्ञकर्म में प्रायः अग्नि को नाना तरह की आहुति अर्पण करके इंद्र, रुद्र (शिव), मरुत्, विष्णु आदि देवताओं को संतुष्ट करने का प्रयत्न होता है।
यज्ञ में किसी वस्तु को त्यागने की एक घनिष्ठ परंपरा है। इसकी जानकारी अष्टाध्यायी के ‘तस्य च दक्षिणा यज्ञाख्येभ्यः 5।1।95॥’ इस सूत्र से पुष्ट होती है। इस सूत्र में यज्ञ-समय पर दी जानेवली दक्षिणा के लिए विशेष व्याकरणिक नियम का प्रावधान किया गया है। जैसे देवताओं की संतुष्टि के लिए अग्नि में आहुति दी जाती है, वैसे ही यज्ञ में उपस्थित लोगों को भी दान-दक्षिणा देकर तृप्त किया जाता है।
यज्ञकर्म करने वाले व्यक्ति को ‘यजमान’ नाम से पुकारा जाता था (3।2।128॥), जो आज भी प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है, कि समस्त वैदिक साहित्य में लगभग 400 प्रकार के यज्ञों (या कर्मों) का वर्णन किया गया है। परंतु, सामान्य व्यक्ति की क्षमता को ध्यान में रखते हुए, इनमें दो भाग किए गए – नित्य एवं काम्य कर्म।
काम्य कर्म वे हैं, जो किसी विशिष्ट इच्छा की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। काम्य कर्मों का अच्छा उदाहरण है रामायण के बालकांड में महाराज दशरथ द्वारा अनुष्ठित ‘पुत्रकामेष्टि’ नामक यज्ञ, जो पुत्रप्राप्ति की इच्छा से अनुष्ठित हुआ था। इस यज्ञ में महाराज दशरथ यजमान थे। तीनों महारानियाँ (कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी) यजमान-पत्नी की भूमिका में थीं।
नित्य कर्म वे हैं, जो किसी भी धार्मिक द्विज के लिए अनिवार्य कर्तव्य माने जाते हैं। इनकी संख्या लगभग 40 मानी जाती है। नित्य कर्मों में सर्वपरिचित १६ संस्कार समाए हुए हैं (गर्भाधान, नामकरण, उपनयन, विवाह, अन्त्येष्टि इत्यादि)। यह विशेष रूप से बताया जाना चाहिए, कि धार्मिक रीतियों के अनुसार, विवाह संस्कार का पुरुषों और स्त्रियों के लिए सर्वाधिक महत्व है, क्योंकि इसके आगे आनेवाले संस्कारों एवं नित्यकर्मों का अनुष्ठान यजमान की पत्नी के बिना किया ही नहीं जा सकता।
संस्कारों से आगे बढ़कर, और 21 नित्यकर्मों का वर्णन शास्त्र में किया गया है। इन 21 में सात-सात-सात प्रकार के ‘पाकयज्ञ’, ‘हविर्यज्ञ’ और ‘सोमयज्ञ’ उल्लेखित हैं। जिन यज्ञों में पक्वान्न की आहुति दी जाए, वे ‘पाकयज्ञ’ होते हैं। जिनमें अलग-अलग प्रकार के धान्य, फल, घी, दुग्धादि पदार्थ दिए जाएँ, वे ‘हविर्यज्ञ’ कहलाते हैं। ‘सोमयज्ञ’ में ‘सोम’ नामक पौधे का रस निकालकर आहुति-स्वरूप दिया जाता था।
विवाह के बाद, विवाह-संस्कार में प्रज्वलित की गई अग्नि को ही अपने घर में स्थापित करके नव-विवाहित दम्पत्ति को गृह्यसूत्रों और श्रौतसूत्रों में वर्णित यज्ञकार्यों को प्रारंभ करने का निर्देश हमारे धर्मशास्त्र में है। ‘गृह्यसूत्रों’ के अधिकार-क्षेत्र में आनेवाले यज्ञ गृह में ही संपन्न किए जाते हैं। इनमें सात प्रकार के पाकयज्ञ और कुछ हविर्यज्ञ शामिल हैं।
शेष हविर्यज्ञ और सोमयज्ञ ‘श्रौतसूत्रों’ के अधिकार में आते हैं। यह कार्य व्यापक मानव समाज की भलाई की दृष्टि से, धार्मिक स्थलों से संलग्न यज्ञशालाओं में किए जाते हैं। सनातन परंपरा में व्यक्ति और समाज दोनों ही धर्म के अभिन्न अंग हैं। इसी न्याय से प्रत्येक विवाहित जोड़े को सभी स्मार्त और श्रौत यज्ञों का समान उत्तरदायित्व है।
एक उदाहरण के रूप में, वर्तमान भारत में भी ‘अग्निहोत्र’ नामक यज्ञ श्रेष्ठ याज्ञिकों के द्वारा आचरण किया जाता है। यह यज्ञ ‘श्रौत’ स्वरूप का है, घर के अंदर ही इसका अनुष्ठान करने का निर्देश होने से यह ‘गृह्य’ कर्म है व आहुति के रूप में इसमें दूध, घी और धान डाले जाने के कारण ‘हविर्यज्ञ’ है।
यज्ञ में दी जानेवाली आहुति के प्रकार के आधार पर पाक और हविर्यज्ञों के ‘इष्टि’ व पशुबंध’ नामक उप-प्रकार आचार्य पाणिनि गिनाते हैं। प्राचीन समय में ‘पशुबंध’ प्रकार के यज्ञों में पशु (विशेषकर बकरियाँ) की बलि चढ़ाई जाती थी। इन पशुबंध यज्ञों में पशु को ‘यूप’ नामक एक स्तम्भ से बांधा जाता था
आज भी, भारत और नेपाल के कुछ मंदिरों में पशुबलि की प्रथा कायम है, जो इसी परंपरा का एक अवशिष्ट स्वरूप है। बहरहाल, आजकल के आधुनिक यज्ञों में जीवित पशु के स्थान पर आटे से बनी पशु-आकृतियाँ आहुति में दी जाती हैं। किसी महायज्ञ के समापन के बाद यज्ञभूमि, यज्ञवेदि और यूपस्तंभ पवित्र-पूजनीय माने जाते थे। इस प्रथा का उल्लेख महाभारत, रामायण सहित चाणक्य के अर्थशास्त्र, मृच्छकटिकम् एवं अभिज्ञानशाकुन्तलम् जैसे संस्कृत नाटकों में भी मिलता है।
इसके व्यतिरिक्त, सोमयज्ञ पर्यायी रूप से ‘क्रतु’ कहलाए जाते थे (सूत्र 2।4।4॥, 4।3।68॥)। महाभारत के सभापर्व में महाराज युधिष्ठिर द्वारा आचरित ‘राजसूय’ यज्ञ क्रतुयज्ञ है। क्रतुयज्ञ कभी-कभी शताब्दियों तक भी निरंतर रूप से चल सकते थे। ऐसे यज्ञों को ‘दीर्घसत्र’ की विशेष उपाधि प्रदान की जाती थी, जिसका उल्लेख अष्टाध्यायी सूत्र 5।1।94॥ और 7।3।1॥ में किया गया है।
आचार्य पाणिनि क्रतुरूपी यज्ञों से भली-भाँति परिचित थे, क्योंकि अष्टाध्यायी के अलग-अलग सूत्रों में इन यज्ञों के नाम सर्वत्र मिलते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं– ‘अग्निष्टोम’ (8।3।82॥), ‘ज्योतिष्टोम’ और आयुष्टोम (8।3।83॥)। इन सभी यज्ञों के विधिनियम कल्पसूत्रों में विलक्षण और अद्वितीय सूक्ष्मता से दर्ज किये गए हैं।
कल्पसूत्र के भाष्यग्रंथों और पद्धति-ग्रन्थों में यज्ञकुंड का आकार व निर्माण के लिए उपयुक्त भूमि के लक्षण (3।3।21, 4।3।28॥), यजमान बनने के लिए व्यक्ति-विशेष की पात्रता (सूत्र 4।1।93, 4।4।137॥), सोम के पौधे के लक्षण और उसका चयन, सोमरस को बनाने की विधि (3।2।103॥, 3।3।99॥), यज्ञ करते समय अलग-अलग समय पर दी जानेवाली आहुति की मात्रा और किस उपकरण से आहुति दी जानी चहिए (1।3।64॥ और 8।1।15॥), और यज्ञ के पूर्ण होने के पश्चात् सोमरस के प्रसाद का वितरण के लिए उपयोग किए जानेवाले बरतन (6।2।39॥) इन सभी मुद्दों का अत्यंत सटीक वर्णन किया गया है।
केवल क्रतुयज्ञों तक ही विचार सीमित करते हुए भी, यह मानते देर नहीं लगती, कि कल्पशास्त्र का विस्तार अतिविशाल है। आधुनिक भारत के एक अत्यंत प्रख्यात, महातपस्वी शंकराचार्य श्री चंद्रशेखर सरस्वती ने इसका वर्णन कुछ ऐसे किया है– “यज्ञों की क्रिया का व्याप कुछ ऐस है, कि इसमें किसी भी बारीकी को छोड़ा नहीं गया। बिल्कुल किसी अंतरिक्ष या परमाणु विज्ञान प्रयोगशाला जैसे, छोटी से छोटी बात का पूरा ध्यान रखा गया है, जिससे अलौकिक दैवी शक्तियों का यथायोग्य आशीर्वाद प्राप्त हो”।
कुछ प्रख्यात यज्ञ – पुराणेतिहास एवं साहित्य के संदर्भ
भारतीय पुराणेतिहास के ग्रंथों में कई विख्यात यज्ञों का उल्लेख दिखाई देता है। इनमें से कुछ का विवरण हम इसके पूर्व भी दे चुके हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध यज्ञ है – अश्वमेध यज्ञ। याज्ञिक संस्कृति का चरमोत्कर्ष हमें अश्वमेध में दिखाई देता है। यह बात जानी-मानी है, कि रामायण एवं महाभारत में युद्ध के पश्चात् विजयी चक्रवर्ती राजाओं के अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख है।
अश्वमेध का अधिकार प्राप्त करना इतना कठिन है, कि केवल वही राजा इसका अधिकारी होता है, जो अपने सभी शत्रुओं को परास्त करके अखण्ड भूमंडल का स्वामी प्रमाणित हुआ हो। यह शर्त इस बात से पुष्ट होती है, कि प्रभु श्रीराम ने भी लंका विजय व राज्याभिषेक के पश्चात् ही अश्वमेध का संकल्प लिया।
दुर्योधन समेत समस्त कौरवकुल के नाश के बाद ही सम्राट् युधिष्ठिर ने अश्वमेध का अनुष्ठान पूरा किया। इस अश्वमेध यज्ञ की क्रिया का महाभारत के “आश्वमेधिक पर्व” में अत्यंत विस्तृत विवरण है। इच्छुक पाठकों को उसी ग्रंथ के संदर्भ का परीक्षण करने की विनंती है।
पौरणिक उल्लेखों के बाद, हमें शिलालेखों और साहित्यों से एकाधिक बार चक्रवर्ती सम्राटों के द्वारा आयोजित यज्ञों का बोध होता है। मौर्य कुल का अधःपात होने के बाद पाटलीपुत्र पर शुंग वंश का शासन 185 इ.स. पूर्व में स्थापन हुआ । इसके संस्थापक सम्राट् पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेध का सफल आयोजन किया, यह जानकारी हमें शिलालेखों से मिलती है।
इसका वर्णन तो महाकवि कालिदास के “मालविकाग्निमित्रम्” नामक नाटक में भी प्राप्त होता है। उसके बाद, इ.स. पूर्व 100 के आसपास पुणे के निकट स्थित नाणेघाट के शिलालेखों में तत्कालीन सातवाहन वंश के द्वारा कई अलग-अलग यज्ञों का अनुष्ठान करने का प्रमाण मिलता है।
इस शिलालेख में ‘अग्न्याधेय’, ‘अंगीरसातिरात्र’ नामक यज्ञों के साथ-साथ राजसूय यज्ञ किये जाने का उल्लेख है। यह यज्ञ प्रथा मध्ययुग और आधुनिक युग तक अविच्छिन्न रूप से चली आई है। इसके साक्षी कई सिक्के और शिलालेख संग्रहालयों में उपलब्ध हैं। गुप्त, चालुक्य और चोल वंश के समेत कई नृपों के द्वारा यज्ञों के आयोजन की जानकारी यह स्रोत हमें देते हैं।
आज भी, केरल और आंध्र सहित देश के कई भागों में विश्वकल्याण के लिए इन कर्मों का आयोजन जारी है। स्वतंत्र भारत में भी, अनेक बार अग्निष्टोम एवं वाजपेय यज्ञ किए जाने का समाचार ज्ञात है। यज्ञपुरुष की हमारे समाज एवं देश पर कृपादृष्टि बने रहने की कामना करते हुए, अगले भाग में हम सनातन परंपरा के भक्तिमार्ग का पाणिनिकालीन साहित्य के माध्यम से दर्शन करते हुए पणिनिकालीन भारत के धर्म का विवरण समाप्त करेंगे।
क्रमशः
निखिल नाईक विद्युत अभियांत्रिकी के शोध छात्र हैं। वे भू-राजनीति एवं भारत की प्रगति गाथा में रुचि रखते हैं।
संबंधित कड़ियाँ और संदर्भ-
- “India as known to Panini”, Dr. Vasudev Sharan Agrawal, University of Lucknow, 1953
- “The Kautiliya Arthasastra (3 Vols.) (vol.1 in Sanskrit, vols. 2 & 3 in English)”, by Dr. R. P. Kangle, 2010
- महाकविशूद्रकप्रणीतम् “मृच्छकटिकम्”, व्याख्याकार – डा. जगदीशचन्द्र मिश्र, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, २०२०.
- महाकवि कालिदासप्रणीतम् “अभिज्ञानशाकुन्तलम्”, व्याख्याकार – डा. श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी.
- महाकवि कालिदासप्रणीतम् “मालविकाग्निमित्रम्”, व्याख्याकार – डा. रमाशङ्कर पाण्डेय, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, २०१७.
- “Historic Inscriptions of India: The Nāṇeghāt Inscription of Queen Nāganikā”, Prof. Sneha Nagarkar, Indica Today, June 2021.
- “Sacrifices from the Chapter “Grhasthasrama”, in Hindu Dharma”, at https://www.kamakoti.org/hindudharma/part19/chap6.htm
- “ऋग्वेद संहिता”, from https://sanskritdocuments.org/mirrors/rigveda/e-text.htm
- The Ramayana, (3 vols.), translated by Dr. Bibek Debroy, Penguin India, 2017.
- The Mahabharata, (10 vols.), translated by Dr. Bibek Debroy, Penguin India, 2015.