अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान- वोट बैंक की राजनीति में भुलाए गए शहीद

डॉ. अंबेडकर अपने भाषण “द ग्रामर ऑफ़ अनार्की” में राजनीति में व्यक्ति पूजा से बचने को कहते हैं। संभवत: वह नेहरू का अपने ही समय में महामानवीकरण देख रहे थे और स्वतंत्र भारत की राजनीति के शैशव काल में ही लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का एक महानायक के विराट व्यक्तित्व के समक्ष बौना होते देख रहे थे।
दार्शनिक प्लेटो के अनुसार जनतंत्र का अगला पड़ाव तानाशाही होता है। यह बात जितनी सत्य जूलियस सीज़र के समय थी, उतनी ही सत्य नेहरू और इंदिरा के समय में। वास्तव में मेरे विचार में इसका कारण नायकों का लोकतंत्र में आना नहीं है वरन एक ही विचारधारा के नायकों का प्रभुत्व होना है।
राष्ट्रीय नायकों में वैचारिक असंतुलन तानाशाही की स्थिति पैदा करता है। जैसे-जैसे राजनैतिक नेतृत्व बौना हुआ जाता है, नेता भी सिकुड़ते जाते हैं। उन नेताओं की छविस्मृति से मिटाने का प्रयास होने लगता है जो एक विशेष राजनैतिक विचारधारा को आगे नहीं ले जाते हैं और जिनके व्यक्तित्व की महानता के समक्ष वर्तमान के नेताओं का बौनापन और अधिक उभरकर आता है, चाहे वो नायक पटेल हों, सावरकर हों, तिलक, बिस्मिल या अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान।
पिछले सप्ताह अशफ़ाक़ की जयंती निकली और इस सन्नाटे से निकली है कि हृदय द्रवित हो उठता है। भारत माता के एक महान पुत्र के जन्मदिवस पर ऐसी उदासीनता निर्दोष नहीं है, यह उस राजनीती का प्रतिबिम्ब है जो हमारे लोकतंत्र को धीरे-धीरे खा रही है।
इस संदर्भ में वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार बधाई की पात्र है जो राष्ट्रनायकों को दलगत राजनैतिक परिभाषाओं की पराधीनता से बाहर निकलकर सम्मानित कर रही है। पारिवारिक पत्रकारों एवं इतिहास का रोने बहुत निर्ममता से स्वतंत्रता आंदोलन के हर उस अंश को मिटाने का प्रयास किया जो कांग्रेस के प्रथम परिवार की ख्याति में कुछ जोड़ता नहीं था।
अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान वारसी का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में प्रतिष्ठित पठान परिवार में हुआ। पिता का नाम शफ़ीक़ उल्लाह ख़ान और माता का नाम मज़हर-उल-निसा था। परिवार में सबसे छोटे अशफ़ाक़ को बड़े स्नेह से पाला गया, किंतु पढ़ाई में कठोर अनुशासन में रहे।
अशफ़ाक़ लिखते हैं- “मेरी मार्शल स्पिरिट का नतीजा मिस्टर मनोहरलाल ज्योतिषी के बेंत थे।” अशफ़ाक़ की शिक्षा अंग्रेज़ी के साथ-साथ उर्दू में एक मौलवी साहब के द्वारा हुई। परिवार में अंग्रेज़ी का ख़ासा विरोध था। अशफ़ाक़ एक ख़त में लिखते हैं कैसे उनके एक रिश्तेदार ने अंग्रेज़ी की छूटी हुई पुस्तक चिमटे से पकड़ा के नौकर के हाथ भिजवाई और हँसते हैं कि शायद रिश्तेदार को मालूम नहीं था कि लोहे का चिमटा तो कंडक्टर होता है।
मौलवी साहब शरारती अशफ़ाक़ को सज़ा में उठक-बैठक कराते थे जिसे अशफ़ाक़ कसरत समझकर करते थे, और लिखते हैं, “यूँ समझिये मौलवी साहब मुझे पहलवान बनाने का शौक़ रखते थे।” ख़ुशमिजाज़ अशफ़ाक़ कहते हैं- “मुझे फाँसी महज़ मोटा-ताज़ा होने की वजह से ही दी जाएगी। ध्यान देने की बात है कि यह बात वो नौजवान लिख रहा जो सत्ताईस वर्ष की आयु में अपने सामने फाँसी का फंदा देख रहा हो जहाँ आधुनिक राजनीति में पचास वर्ष का नेता भी परिपक्व नहीं होता।
अशफ़ाक़ बचपन की एक घटना बताते हैं जब उनके पिता ने इस प्रश्न के उत्तर में कि क्या विधर्मी के ऊपर ज़ुल्म हो तो मदद करनी चाहिए? कहा “अशफ़ाक़, जो इंसान ज़ुल्म करे वह ज़ुल्मी, और जिस पर ज़ुल्म हो वह मजलूम। ज़ुल्मी चाहे जिस धर्म का हो, उसकी ख़िलाफ़त और मजलूम किसी भी मजहब का हो उसकी हिफ़ाजत की जानी चाहिए।” पिता के विचारों में स्पष्टता पुत्र के जीवन में भी परिलक्षित होती है, और यह भी बताती है की क्यों अशफ़ाक़ आधुनिक राजनैतिज्ञों को पसंद नहीं आते।
अशफ़ाक़ हसरतवारसी के नाम से बचपन से ही कविताएँ व शायरी लिखने लगे एवं उनका लेखन भी उनकी देशभक्ति का प्रतिबिम्ब था। अशफ़ाक़ लिखते हैं-
“ऐ मातृभूमि, तेरी सेवा किया करूँगा
मुश्किल हज़ार आए हरगिज़ न डरूँगा।
निश्चय ये कर चूका हूँ, संदेह कुछ नहीं है
तेरे लिए जियूँगा, तेरे लिए मरूँगा।”
देश के लिए शहीदी का भाव मन में लिए अशफ़ाक़ बड़े हुए। 1857 का सबसे बुरा कहर उत्तर प्रदेश पर टूटा था इसलिए क्रांति की लहर वहाँ अपेक्षाकृत देर से पहुँची। 1918 में जब मैनपुरी षड्यंत्र में अशफ़ाक़ के स्कूल से दसवीं का छात्र राजाराम भारती गिरफ्तार हुआ तो अशफ़ाक़ चकित थे। अशफ़ाक़ को मालूम हुआ कि राजाराम किसी रामप्रसाद बिस्मिल के साथ रहा करता था।
क्रांति के कार्य में संलग्न बिस्मिल के बारे में सुनकर अशफ़ाक़ उनके भक्त हो गए। रामप्रसाद इनके बड़े भाई के मित्र थे। अशफ़ाक़ कहते हैं शुरूआती मुलाक़ात सर्द रही। बिस्मिल अपनी आत्म-कथा में लिखते हैं कि उन्हें संदेह था कि एक मुसलमान लड़का क्रांति के कार्य में क्यों उत्सुक है। इस संदेह से आरम्भ हुई मित्रता समय के साथ अंततः एक अभूतपूर्व भ्रातत्त्व में परिवर्तित हो गई। अशफ़ाक़ के विषय में बिस्मिल लिखते हैं-
“मैं मुसलमानों की शुद्धि कराता था। आर्य समाज मंदिर में मेरा निवास था, किन्तु तुम इन बातों की किंचित मात्र भी चिंता न करते थे। …तुम एक सच्चे मुसलमान और सच्चे देशभक्त थे। तुम्हारी ख्वाहिश थी कि ख़ुदा मुसलमानों को अक़्ल देता कि वे हिन्दुओं के साथ मिलकर हिंदुस्तान की भलाई करते। …तुम्हारी प्रवृत्ति देखकर बहुतों को संदेह होता कि कहीं इस्लाम धर्म त्याग कर शुद्धि न करालो, पर तुम्हारा हृदय किसी प्रकार अशुद्ध न था, तो शुद्धि तुम किस बात की कराते?”
अशफ़ाक़ के व्यक्तित्व का बड़प्पन ही है कि वे एक शिक्षक के प्रभाव में आरंभ में हिंदुओं के प्रति सशंक होने को स्वीकार भी करते हैं और उस अध्यापक को कोसते हुए कहते भी हैं, “जब मैं गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ता था, वह हमेशा हिंदू–मुसलमान में बहुत इम्तियाज़ (फ़र्क़) करते थे। जो मैं अब कहूँगा उस्ताद का कमीनापन है। असल में यही लोग मुल्क के दुश्मन हैं।”
अशफ़ाक़ कहते हैं कि वह भी काफी समय तक ‘पैन-इस्लामिस्ट’ रहे, लेकिन आगे लिखते हैं, “मगर यह वो ज़माना था जब मुझे जिंदगी का शऊर हासिल नहीं हुआ था।” अशफ़ाक़ लिखते हैं-
“ये झगड़े और बखेड़े मिटाकर आपस में मिल जाओ,
ये तफ़रीक़-ऐ-अगस है तुममें हिंदू और मुसलमां की”
अशफ़ाक़ काकोरी में ट्रेन से सरकारी ख़ज़ाना लूटने में बिस्मिल के सहयोगी रहे। काकोरी कांड के उपरांत अशफ़ाक़ दिल्ली से गिरफ्तार हुए। अशफ़ाक़ काकोरी में ट्रेन से सरकारी ख़ज़ाना लूटने में बिस्मिल के सहयोगी रहे। काकोरी कांड के उपरांत अशफ़ाक़ दिल्ली से गिरफ्तार हुए।
श्री मोतीलाल नेहरू के कश्मीरी वक़ील मित्र और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जगतनारायण मुल्ला अंग्रेज़ सरकार के वकील हुए और उन्होंने बिस्मिल, अशफ़ाक़, रोशन सिंह और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फाँसी की सज़ा दिलाई। अशफ़ाक़ को 19 दिसम्बर 1927 को फाँसी हुई। 1930 में जगतनारायण मुल्ला लखनऊ विश्व-विद्यालय के उप-कुलपति हुए। उनके पुत्र आनंद नारायणमुल्ला 1954 में उ.प्र. मुख्य न्यायलय के जज हुए। आनंद नारायण मुल्ला चौथी लोकसभा के सदस्य रहे और 1972 में कांग्रेस के टिकट पर राज्य सभा के सम्मानित सदस्य हुए।
जिस देश में वंदे मातरम विवाद का विषय हो गया है, उस देश को उन वीरों के विषय में जानना आवश्यक है जो वंदे मातरम का उद्घोष करते हुए बलिदानी फाँसी पर चढ़ गए।
आज जब हम अशफ़ाक़ के विषय में जानने का प्रयास करते हैं तो एक ऐतिहासिक पुस्तक नहीं मिलती है जिसमे अशफ़ाक़ एवं उनके साथियों के विषय में विस्तार से लिखा हो। संभवत: इसके पीछे धार्मिक कट्टरता का नैरेटिव भी हो जो कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट का वोट बैंक रहा है।
आपातकाल में अल्पसंख्यकों पर हुए निर्मम अत्याचार के मूर्खतापूर्ण प्रायश्चित ने इंदिरा गांधी को सत्ता में वापस तो ला दिया, किंतु सांप्रदायिकता एवं तुष्टिकरण की ऐसी राजनीति की नींव डाली जिसमे अशफ़ाक़ और बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों के लिए स्थान ही नहीं रहा।
पहचान की राजनीति के लिए भय एवं अविश्वास की आवशयकता होती है, और अशफ़ाक़ एवं बिस्मिल की मित्रता उस समय का स्मरण कराती है जब एक राष्ट्रीय भारतीयता अन्य पहचानों को अपने में घोल लेती थी। अशफ़ाक़ जैसे व्यक्तित्व को समझने वाले भारतीय ओवैसी जैसी राजनीति को स्वीकार ही नहीं कर सकेंगे। इसीलिए अशफ़ाक़-बिस्मिल का नाम प्रयासपूर्वक मिटाया गया, और इसीलिए एक सशक्त एवं स्वस्थ भारत के लिए आवश्यक है कि हम इन महापुरुषों का नाम राष्ट्रीय सन्दर्भ से कभी मिटने न दें।
स्रोत: रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा, शहीद-ए-वतन अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान- एम.आई. राजस्वी