पूर्वाग्रहों को परे रखकर पंडित नेहरू से जो सीख सकते हैं सीखें लेकिन वे ‘भगवान’ नहीं हैं

आधुनिकता और तार्किकता का चोला पहनने वाला वर्ग (विशेषकर कम्युनिस्ट) भले ही धर्म और व्यक्ति पूजा को निषिद्ध मानता हो, लेकिन उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू के रूप में एक ‘भगवान’ गढ़ लिया है। ये लोग नेहरू से ही भारत के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उससे पहले भारत, भारत नहीं था। इतिहास में आप किसी की भी आलोचना कीजिए, लेकिन नेहरू की आलोचना इस वर्ग को कतई स्वीकार नहीं है।
इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि नेहरू समकालीन और स्वतंत्रता के बाद विद्वान नेताओं में एक थे। भारत को आधुनिक और विकसित बनाने के लिए उनका अपना विज़न था। वह कितना सफल-असफल हुआ, वह भी वाद-विवाद से ऊपर नहीं है। लेकिन उन्होंने पूरी शक्ति और ईमानदारी से उन मूल्यों-सिद्धांतों का अनुसरण किया जिसे वे सही मानते थे।
‘पांडित्य’ की उपाधि उनके लिए अतिश्योक्ति नहीं है। वे सही मायनों में ‘पंडित’ थे। लेकिन उनकी गलतियों ने भारत को कुछ सिरदर्द और समस्याएँ भी दीं हैं। कश्मीर में उनका क़दम एक गलती थी, चीन को लेकर नेहरू का दृष्टिकोण एक भयानक भूल थी, जो दशकों तक हमारे साथ चलेगी।
खैर, यह अवसर पंडित नेहरू की गलतियाँ खोजने का नहीं है। बल्कि ऐसी जयंतियाँ (या पुण्यतिथि) हमें उनसे लाभ लेने का एक अवसर प्रदान करती हैं। नेहरू ने बहुत लिखा है। यह हिंदी और अंग्रेज़ी में बराबर उपलब्ध है। हम सबको उन्हें पढ़ना चाहिए। इतिहास को जो लोग बोरिंग मानते हैं, वे भी नेहरू द्वारा लिखित विश्व और भारतीय इतिहास को रुचिकर ढंग से पढ़ सकते हैं।
अब फिर से कम्युनिस्ट और उस वर्ग पर आते हैं। कम्युनिस्ट देश की संस्कृति-सभ्यता और इतिहास को नकार देते हैं। उनके लिए बिना पीछे देखे सिर्फ आगे बढ़ना ही एक मात्र रास्ता है। नेहरू ने इनके लिए लिखा है- “भारतीय कम्युनिस्टों के लिए इतिहास नवंबर 1917 से शुरू होता है। (जब सोवियत रूस में क्रांति हुई थी) उससे पहले का जो कुछ है वह बस इसी घटना की तैयारी थी।”
वे आगे लिखते हैं, “आमतौर पर हिंदुस्तान जैसे देश में, जहाँ बहुत बड़ी तादाद में लोग भूखे रहते हैं और जहाँ आर्थिक ढाँचा चटख रहा है, लोगों का साम्यवाद की तरफ़ झुकाव होना चाहिए। एक ढंग से धुंधला-सा झुकाव तो है, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी उसका फ़ायदा नहीं उठा सकती। क्योंकि उसने अपने-आपको क़ौमी भावना की धारा से अलहदा कर लिया है और वह एक ऐसी भाषा बोलती है, जिसकी जनता के दिलों में कोई गज नहीं होती। वह एक मज़बूत, लेकिन छोटी-सी पार्टी है, जिसकी असल में कोई बुनियाद नहीं है।”
चूँकि चुनावी राजनीति के लिहाज़ से देखा जाए तो कम्युनिस्ट पार्टी आज अप्रासंगिक (लगभग मर) हो चुकी है। ऐसे में उनसे सिम्पैथी जताने वाला एक वर्ग उभरा है, उनके लिए भी नेहरू के शब्द सटीक बैठते हैं। इस वर्ग के लिए वे लिखते हैं, “हिंदुस्तान में सिर्फ यह कम्युनिस्ट पार्टी ही नहीं, जो इस मामले में नाकामयाब रही है। ऐसे और लोग भी हैं, जो आधुनिकता और आधुनिक ढंग के बारे में लंबी-चौड़ी बातें करते हैं, लेकिन उनमें आधुनिक भावना और संस्कृति की असल में ज़रा भी समझ नहीं है।”
इस (बौद्धिक) वर्ग को हम सहिष्णुता की बहस का ‘दावा’ करते देख सकते हैं। खासकर अंग्रेज़ी प्रेस और मीडिया में इस ‘क्लास’ की बहुतायत है। इस वर्ग के लोग, जिन्हें भारतीय मिट्टी से उठने वाली सौंधी सुगंध से एलर्जी है, ये लोग श्रीराम के चरित्र में भी दोष खोज लेते हैं, ये उनसे भी सवाल कर लेते हैं, लेकिन उनके ‘भगवान’ नेहरू पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। न ही वे ऊपर बताए गए आस्तिकों के दूसरे सिद्धांत की बुराई से पीछा छुड़ा पाए हैं।
परिणाम सबके सामने हैं। दुर्भाग्य से कांग्रेस पार्टी भी आज अपने देश और इसकी मिट्टी से अत्यंत प्रेम करने वाले नेहरू की जगह कम्युनिस्टों की खोखली तार्किकता को अपनाने को उतावली दिखती है। एक बार फिर परिणाम सबके सामने हैं।
अंत में, यहाँ फिर से स्पष्ट शब्दों में ये दोहराना बहुत ज़रूरी है कि कमियों और बड़ी-बड़ी गलतियों के बावजूद नेहरू बहुत अच्छे इंसान और बहुत अच्छे नेता थे, उन्हें महान भी माना जा सकता है, लेकिन इतिहासकारों ने तो उन्हें ‘भगवान’ ही बना दिया। अपने पूर्वाग्रहों को एक किनारे रखकर हम उनसे बहुत सी अच्छी बातें सीख और जान सकते हैं।