आप तबरेज़ अंसारी को जानते हैं। क्या भरत यादव के विषय में कुछ पता है?

आशुचित्र- तबरेज़ अंसारी की मृत्यु से एक माह पूर्व भरत यादव को ‘काफिर’ बोलते हुए एक भीड़ ने पीटा था और अंसारी की तरह उसकी भी कुछ दिनों बाद मृत्यु हो गई। फिर क्यों केवल अंसारी के मामले में ही आरोपियों पर हत्या का आरोप लगाने की मांग उठ रही है?
गूगल खोज के न्यूज़ खंड में जब आप ‘तबरेज़ अंसारी’ लिखकर एंटर दबाते हैं तो आपको उस व्यक्ति के ऊपर रिपोर्ट पर रिपोर्ट मिलती है- मुख्यधारा की मीडिया से ऑनलाइन पोर्टलों से क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार-पत्रों तक- 17 पन्नों में 160 से अधिक परिणाम।
इनमें राजनेताओं द्वारा गिरती कानून व्यवस्था और न्यायिक व्यवस्था में कमियों पर टिप्पणियाँ, गहमागहमी वाली टीवी बहसें, आक्रोश भरे संपादकीय जो भारत को ‘रक्त और लज्जा की भूमि‘ कह रहे हैं, सड़क पर हुए प्रदर्शनों के छायाचित्र जो कई स्थानों पर हिंसात्मक हो गए थे मिलते हैं। कम से कम तीन पन्नों में झारखंड पुलिस द्वारा आरोपियों पर से हत्या का आरोप हटाए जाने की ही बात है।
अब आप गूगल के इसी न्यूज़ खंड में ‘भरत यादव’ खोजिए। इससे जुड़ी एकमात्र और आखिरी प्रविष्टि जो आप पाएँगे, वह पाँचवे पन्ने पर होगी। उसे एक “लस्सी बेचने वाला” या “दुकानदार” कहा गया है। तो यह संभव है कि आपमें से कई न अंसारी के बारे में सुना होगा लेकिन यादव के विषय में नहीं।
24 वर्षीय अंसारी को झारखंड के एक गाँव में ग्रामीणों द्वारा तब पकड़ा गया था जब वह कथित रूप से तड़के सुबह एक घर में घुसने का प्रयास कर रहा था। शोर सुनकर जब घरवाले और पड़ोसी इकट्ठा हुए तो उन्होंने 19 जून को सुबह सात बजे (उनके द्वारा फोन किएजाने के चार घंटे बाद) आई पुलिस को अंसारी को सौंपने से पहले सीमेंट के एक खंबे से बांधकर उसे पीटा था।
बाद में एक वीडियो सामने आया जिसमें संदिग्ध चोर से एक भीड़ उसका नाम पूछ रही थी। यह जानकर कि उसका नाम तबरेज़ अंसारी है- यानी कि वह एक मुस्लिम है- ग्रामीण उसे जय श्रीराम और जय हनुमान चिल्लाने के लिए कहते हैं। घटना के चार दिन बाद अंसारी की न्यायिक हिरासत में मृत्यु हो गई।
25 वर्षीय भरत यादव उत्तर प्रदेश के मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर के निकट एक प्रसिद्ध लस्सी की दुकान के स्वामी थे। 18 मई को कुछ ग्राहकों से उनकी और उनके भाई पंकज की बहस हो गई थी।
दोनों भाइयों का कहना था कि उन्होंने नौ ग्लास लस्सी दी है जबकि समूह का कहना था कि उन्होंने सिर्फ पाँच ग्लास लस्ली ली है। फिर दोनों भाइयों ने उन ग्राहकों को बिना पैसा दिए ही दुकान से जाने के लिए कहा। इसे समूह ने अपमान की तरह देखा और उन्हें धमकी देकर वहाँ से चले गए।
“उन्होंने बार-बार हमें काफिर कहा। उन्होंने कहा अब हम काफिर बहुत ज़्यादा बोलने लगे हैं।”, बाद में भरत के छोटे भाई पंकज ने स्वराज्य को बताया।
थोड़ी देर में लगभग 15-20 लोगों की भीड़ के साथ वह समूह डंडों और सरिये के साथ वापस आया। वे दोनों भाइयों को घसीटकर सड़क पर लाए और पीटा। घटना के पाँच दिन बाद भरत यादव की मृत्यु हो गई।
Here’s Pankaj narrating the event. How a woman hurled abuses at the brothers and threatened to beat them, how the mob called them ‘kaafir’ pic.twitter.com/qXD3pdAJRq
— Swati Goel Sharma (@swati_gs) June 6, 2019
अंसारी के मामले में शुरुआती तौर पर झारखंड पुलिस ने आईपीसी की धारा 302 के तहत 11 लोगों पर हत्या का मामला दर्ज किया था। हाल ही में अंतिम ऑटोप्सी रिपोर्ट आई है जो मृत्यु का कारण “कपाल में फ्रैक्चर, कमज़ोर अंग और हृदय में रक्त भरने के कारण कार्डिएक अरेस्ट” को बताती है।
इसके बाद पुलिस ने हत्या का आरोप हटाकर धारा 304 (हत्या की श्रेणी में न आने वाली गैर इरादतन हत्या) के तहत मामला दर्ज किया। धारा 302 के अंतर्गत फाँसी या उम्रकैद का दंड का प्रावधान है, वहीं धारा 304 में 10 वर्ष का कारावास या उम्रकैद।
यादव के मामले में पुलिस ने पहले दो पहचाने गए व्यक्तिों और 15-20 अनामित व्यक्तियों पर मामला दर्ज किया- वह भी डकैती का। पीड़ित के भाई ने बताया था कि उन्हें बुरी तरह मारने के बाद भीड़ उनके गल्ले से 15,000-20,000 रुपये लेकर भाग गई थी।
पुलिस को दंगा करने और हत्या के प्रयास का मामला भी दरेज करना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसी सप्ताह के अंत में यादव को सिर में तेज़ दर्द हुआ और अस्पताल में उसने प्राण त्याग दिए।
ऑटोप्सी में सिर की चोट को ही मृत्यु का कारण माना गया। डॉक्टर ने परिवार को बताया कि यादव के मस्तिष्क की नसों में चोट पहुँची थी। इसके बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने आरोपियों पर धारा 304 के तहत मामला दर्ज किया गया- वही आरोप जो झारखंड पुलिस ने अंसारी के मामले में आरोपियों पर लगाए हैं।
मथुरा मामले में कभी भी हत्या का आरोप लगाया नहीं गया। ये मामले एक जैसे लग सकते हैं लेकिन फिर भी एक महत्त्वपूर्ण अंतर है जो हमें देखना चाहिए। जहाँ अंसारी उस रात अपने घर से 6 किलोमीटर दूर था, वहीं यादव को उसी की दुकान पर पीटा गया था।
अंसारी इस दुर्घटना से बच सकता था यदि वह उसे मारने वालों के घर में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करता लेकिन ऐसा कुछ नहीं था जो यादव खुद को इससे बचाने के लिए कर सकता था। फिर भी मीडिया अधिष्टानों में अंसारी यादव से बड़ा पीड़ित क्यों है?
क्यों ऐसा नहीं हुआ कि दोनों मामलों के साथ समान व्यवहार हो? अंसारी की भीड़ द्वारा हत्या को बेहतर तरीके से कवर किया गया लेकिन यादव को अनदेखा।
ऐसा क्यों हुआ कि झारखंड के सरायकेला में एक ‘मुस्लिम’ की मृत्यु हुई लेकिन मथुरा में केवल एक “लस्सी बेचने वाले की”? दोनों मामलों में प्रयुक्त किए गए शीर्षकों को देखें।
अंसारी के मामले में-
- इंडिया टुडे, 23 जून- Muslim man beaten up on suspicion of theft, forced to chant Jai Shree Ram, succumbs to injuries (चोरी के संदेह पर मुस्लिम व्यक्ति की पिटाई, जय श्रीराम बोलने के लिए बनाया जबाव, चोट के कारण मृत्यु)
- आउटलुक, 24 जून- Muslim Man Beaten By Mob For Hours, Forced To Chant ‘Jai Shri Ram’, Dies (घंटों तक भीड़ ने पीटा मुस्लिम व्यक्ति को, जय श्रीराम बोलने के लिए जबाव, मौत)
- स्क्रॉल.इन, 24 जून- Jharkhand mob attack: Four more arrested, two policemen suspended a day after Muslim man dies (झारखंड भीड़ हत्या- चार और गिरफ्तार, मुस्लिम व्यक्ति की मृत्यु के बाद दो पुलिसकर्मी निलंबित)
- हफ़पोस्ट, 24 जून- Accused Of Stealing, Muslim Man Made To Chant ‘Jai Shri Ram’ And Lynched (चोरी का आरोप, ज़बरदस्ती बुलवाया जय श्रीराम और भीड़ ने पीटा)
- अल जज़ीरा, 27 जून- Protests in Indian cities after Muslim man beaten to death (मुस्लिम व्यक्ति की पिटाई के बाद मृत्यु पर भारतीय शहरों में विरोध प्रदर्शन)
यादव के मामले में-
- द टाइम्स ऑफ इंडिया, 26 मई- Tension prevails after shopkeeper beaten to death from people of other community
- इंडियन एक्सप्रेस, 28 मई- Brawl over payment: Two days after lassi seller dies, police maintain vigil in Mathura
- स्क्रॉल.इन, 26 मई- Mathura tense after shopkeeper dies of injuries sustained during a brawl last week
सिर्फ यही नहीं।
क्यों पहले मामले में दर्जन भर से भी अधिक फॉलो अप (बाद में भी खबरें छपी) हैं और पहले में एक भी नहीं? “अंसारी की पत्नी कहती है कि यदि हत्या का आरोप नहीं लगा ते वह आत्महत्या कर लेगी।”, हमें बताया जाता है। लेकिन क्यों स्वराज्य के अलावा किसी और संस्था ने यादव के परिवार से नहीं पूछा कि कैसे उनका जीवन चल रहा है?
क्यों जो लोग अंसारी के मामले की हर गतिविधि पर महीनों से नज़र रखे हुए हैं, वे कुछ दिनों में ही यादव को भूल गए?
क्यों वे सभी लोग जो अंसारी की मृत्यु पर भारतीयों को लज्जित महसूस करने के लिए कह रहे हैं, यादव के मामले को अनदेखा कर देते हैं?
क्यों वे सभी लोग जो अंसारी के मामले में निरंतर आरोपियों पर हत्या का मामला दर्ज करने की माँग कर रहे हैं, उन्होंने यादव के मामले में ऐसी कोई मांग नहीं की?
ये सिर्फ शब्दाडंबर नहीं बल्कि महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं क्योंकि ये हमारे देश की सामाजिक संरचना के लिए खतरा उत्पन्न करते हैं। इन अनुचित असमान संवेदनाओं को देखते हुए, निम्न बातें समझी जा सकती हैं।
पहली, जब मीडिया अधिष्ठान उन मामलों को दबा देते हैं (या उन्हें अनदेखा करके या अपराधियों की धर्मांधता को छिपाकर) जहाँ पीड़ित हिंदू होता है और उन मामलों को हवा देते हैं जहाँ मुस्लिम पीड़ित होता है, तब राष्ट्र की एक विकृत छवि बनती है जो वास्तविकता से दूर होती है।
इससे कुटिल घृणा अपराध को ट्रैक करने वालों का जन्म होता है जहाँ राष्ट्र के बहुसंख्यक ही हमेशा अपराधी कहे जाते हैं और राष्ट्र के सबसे बड़े अल्पसंख्यक मुस्लिम हमेशा पीड़ित।
लेकिन एक बार जब ज़मीनी वास्तविकता से अलग यह कथात्मक (नैरेटिव) मुख्यधारा की चर्चा को प्रभावित करने लगता है, तब हर एक नई घटना आग में घी का काम करती है। इसमें अल्पसंख्यकों के ऊपर भी दबाव रहता है कि वे कुछ प्रतिक्रिया दें और उन्हें यह अनुभूति कराई जाती है कि वे खतरे में हैं।
अल्पसंख्यक, जिनके पीड़ितों को न सिर्फ अनदेखा किया जाता है बल्कि उन्हें खलनायक के रूप में भी दिखाया जाता है, और अपमानित महसूस करते हैं। कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि उस देश का क्या होगा जहाँ मात्र सात दशक में ही अल्पसंख्यकों के बनावटी भय के कारण इतना रक्तपात हो चुका है।
देखिए अंसारी की मृत्यु के बाद क्या हुआ। 20 से अधिक कथित रूप से असदुद्दीन ओवैसी के राजनीतिक दल से जुड़े लोग झारखंड के धतकिदीह गाँव में घुसकर हिंदू महिलाओं को बदला स्वरूप बलात्कार की धमकी देने लगे। उन्होंने एक मंदिर से धार्मिक ध्वजा को भी हटा दिया।
झारखंड की राजधानी रांची में अंसारी की मौत के विरुद्ध प्रदर्शन कर रही भीड़ ने अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) छात्रों से भरी एक बस में आग लगाने का प्रयास किया। प्रदर्शनकारियों ने उस बस में मुस्लिमों और हिंदुओं को पृथक करने का भी प्रयास किया लेकिन तब ही किसी समझदार व्यक्ति ने उन्हें ऐसा करने से रोका।
प्रदर्शनकारियों को एक दूसरे समूह ने विवेक श्रीवास्तव नामक हिंदू व्यक्ति को चाकू से मारा। विवेक के भाई ने मीडिया को बताया कि शुक्रवार शाम को दोनों भाई एक मस्जिद के सामने से गुज़र रहे थे, तब ही अंसारी की मृत्यु से आक्रोशित भीड़ ने उनके नाम पूछे और पीटा व उसके बाद एक तीखी नोक वाली वस्तु से विवेक को मारा।
उत्तर प्रदेश के आगरा में अंसारी की मौत का विरोध कर रही भीड़ ने हिंदुओं की दुकानों को लक्ष्य बनाया। भीड़ ने दुकानों में तोड़फोड़ की और दुकानों के स्वामियों पर पत्थर बरसाए। ऐसी ही हिंसा राज्य के मेरठ में भी देखी गई।
नई दिल्ली के लाल कुआँ में मुस्लिम भीड़ ने सदी भर पुराने दुर्गा मंदिर में रात के सन्नाटे में तोड़फोड़ की, क्षेत्र में रह रहे चंद हिंदू परिवारों पर सामुदायिक घृणा भरी टिप्पणियाँ कीं और उन्हें धमकाया। यह सब किसलिए?
उन्हें भ्रमित किया गया था कि अंसारी जैसी भीड़ हत्या उनके क्षेत्र में हुई है। यह घटना राष्ट्रीय राजधानी को दंगों की कगार पर ले गई। सही ही कहा जाता है कि सभ्यता एक पतला मुखावरण है। और वामपंथ द्वारा संचालित यह मीडिया लगातार इसे फाड़ने का प्रयास कर रही है।
दूसरा, ऐसे सामुदायिक रूप से संवेदनशील मामलों में वामपंथी और मीडिया में उनके अनुयायी सावधानी बरतने में गलती करने की बजाय अचेतन में गलती कर रहे हैं। कितने मीडिया संस्थानों और विरोध कर रहे एक्टिविस्टों ने आपको बताया कि अंसारी एक चोर है? कि वह झारखंड के सरायकेला-खरसावन जिले के धतकिदीह गाँव में चौथी चोरी का प्रयास कर रहा था?
कॉलोनी में रहने वाले- जिनमें से अधिकांश पिछड़े वर्ग से आते हैं- इन चोरियों से परेशान थे। जिस मोटरसाइकल पर अंसारी यात्रा कर रहा था और जो बटवा उसके पास था, वह भी चोरी का था। इससे उसे पीटे जाने को सही नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन इस घटना को सांप्रदायिक रंग देने से पहले क्या किसी ने यह देखा कि राज्य में हिंदू चोरों के साथ कैसा व्यवहार होता है?
अंसारी की भीड़ हत्या के सप्ताह भर पूर्व जितेंद्र साउ नामक हिंदू व्यक्ति को झारखंड के दूसरे जिले में पीटा गया था। बाद में पुलिस हिरासत में साउ की मृत्यु हो गई।
अंसारी की घटना के एक सप्ताह बाद पुलिस ने झारखंड के दूसरे जिले में 100 ग्रामीणों पर मामला दर्ज किया था जिन्होंने चोरी के संदेह पर विजय पंजियारा और राजेश मंडल नामक दो युवकों को पीटा था। जुलाई में एक मानसिक रूप से अक्षम व्यक्ति राजू यादव को चोरी के संदेह पर ग्रामीणों ने पीटा था।
तीसरा, जब इस चयनित रिपोर्टिंग से न्याय के लिए दबाव बनाया जा रहा है, पूरे समुदाय द्वारा राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन हुआ क्योंकि वह स्वयं को राष्ट्रीय पीड़ित मानता है तो ऐसे में भारतीय राज्यतंत्र अवश्य ही प्रतिक्रिया देगा।
यह सिर्फ हिंसक क्षमता की भाषा समझता है। सिर्फ उन समूहों या समुदायों की सुनवाई होती है जो सड़कों पर अपना शक्ति प्रदर्शन करके न्याय छीन सकते हैं। तंत्र केवल आक्रोश पर प्रतिक्रिया देना जानता है। न्याय को भी मीडिया की अदालत में चल रही सुनवाई के अनुसार चलना पड़ता है। प्रधानमंत्री को कुछ विशेष अवसरों पर बोलने के लिए विवश होना पड़ता है।
आप देखें कि कैसे केंद्र सरकार अंसारी के मामले में आरोप बदलने पर प्रतिक्रिया दे रही है। गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने पिछले सप्ताह कहा कि उनका विभाग इस विषय पर झारखंड सरकार से बात करेगा। उन्होंने हत्या के आरोपों को हटाए जाने को “दुर्भाग्यपूर्ण” बतााया।
हम सोचते हैं कि क्या वे कभी उप्र पुलिस को मथुरा मामले में हत्या का आरोप जोड़ने के लिए कहेंगे। क्योंकि यद वे ऐसा नहीं करते हैं तो ‘सबका साथ’ का उनका वादा अर्थहीन रह जाएगा।
लेकिन इन सबमें हम सोचते हैं, क्या हम जानते भी हैं कि कौन है यादव। और यही झारखंड की यथास्थिति की शिकायत करने वाले लोगों की विफलता है एवं उनके लिए चुनौती भी।
स्वाति व अरिहंत स्वराज्य में वरिष्ठ संपादक हैं।