स्वामी विवेकानंद के स्मारक की कहानी जिसके लिए पूरा देश खड़ा हो गया था

वैचारिक-राजनीतिक कटुता के दौर से उस समय को याद करें जहाँ स्वामी विवेकानंद के नाम पर यह देश कश्मीर से कन्याकुमारी, गुजरात से अरुणाचल, वाम से दक्षिण और मध्यमार्गी, पूरा एक हो गया था। 1893 में पश्चिमी दुनिया ने विवेकानंद के रूप में एक सूरज की आभा देखी थी। पूरब से आया यह भगवाधारी विश्व धर्म संसद में सब पर भारी पड़ा था।
लेकिन उनकी 100वीं वर्षगाँठ तक भी भारत में कहीं भी इस महान संत की भौतिक स्मृति, शिला-स्मारक नहीं था। 1963 में रामकृष्ण मिशन स्वामी जी 100वीं जयंती मनाने की तैयारी कर रहा था, तभी कन्याकुमारी के कुछ लोगों के मन मे यह विचार आया कि क्यों न उस शिला पर ही एक स्मारक बनवाया जाए, जिसपर स्वामी जी ने ध्यान लगाया था।
स्थानीय लेकिन महत्वपूर्ण गतिरोधों को पार करते हुए जब यह विचार तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम (कांग्रेस पार्टी) की मेज़ पर पहुँचा तो उन्होंने सबसे पहले और सबसे बड़ा रोड़ा अटका दिया। भक्तवत्सलम शिला पर विवेकानंद स्मारक के एकदम विरोधी थे।
आज की राजनीति के समान ही, तब भी तुष्टिकरण का प्रभाव था। दरअसल, कन्याकुमारी में रहने वाले ईसाई समुदाय के लोगों के लिए शिला उनके धर्म से जुड़ा होने के कारण महत्वपूर्ण थी, जिसपर वे किसी हिंदू संत का स्मारक नहीं बनने दे सकते थे।
भक्तवत्सलम इसी बात पर अड़ गए। ऐसे में बात आगे कैसे बढ़े? तभी विवेकानंद स्मारक के लिए एक ऐसे व्यक्ति की तलाश की गई, जो यह काम कर सके। संघ में रह चुके एकनाथ रानडे इसके लिए सर्वश्रेष्ठ थे। जब उन्होंने यह काम अपने हाथ में लिया तो राज्य और केंद्र, दोनों स्तर पर और दोनों सरकारों से अनुमति लेने का विचार आया।
अपने पूर्वाग्रहों से हम पंडित नेहरू को ऐसे कार्यों का विरोधी या तटस्थ मान सकते हैं, लेकिन हकीकत में वे ऐसे नहीं थे। पंडित नेहरू तक स्मारक का निवेदन पहुंचाने से पहले एकनाथ रानडे ने उस समय सिर्फ तीन दिन में 323 सांसदों की लिखित सहमति इसके लिए ले ली। यहाँ यह कहने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए कि इन सांसदों में कम्युनिस्ट पार्टी और लगभग सभी राज्यों से आने वाले सांसद शामिल थे।
लेकिन सिर्फ सांसदों की सहमति ही पर्याप्त नहीं थी, बल्कि इस भारतीय संत के स्मारक के लिए आम जनता से भी योगदान लेने की बात आई। एकनाथ रानडे ने न सिर्फ हर राज्य के मुख्यमंत्री से आर्थिक सहयोग लिया बल्कि उद्योगपतियों से लेकर आम जनता तक ने इसमें एक-दो-पाँच रुपये का योगदान दिया।
ऐसी सहायता के लिए 50 लाख पत्रक छपवाए गए जिन्हें 30 लाख लोगों ने 1 से 5 रुपए देकर ख़रीदा। इस तरह उस समय भारत की जनसंख्या, जो लगभग 50 करोड़ के आसपास थी, में इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने स्वामी जी के स्मारक के लिए सीधे सहायता दी थी।
ऐसा नहीं था कि यह सहायता सिर्फ दक्षिण या उत्तर भारतीय राज्यों ने दी हो, बल्कि पूर्वोत्तर के मुख्यमंत्रियों ने भी अपनी क्षमता अनुसार योगदान दिया था। एकनाथ रानडे ने लिखा है कि वे पहले कभी कॉमरेज ज्योति बसु से नहीं मिले थे, पहली बार इसी स्मारक के लिए मिले तो उन्होंने भी, जो सर्वश्रेष्ठ संभव था, सहयोग दिया।
जिन एकनाथ रानडे ने कभी 50-60,000 रुपये से अधिक की धनराशि इकट्ठी नहीं की थी, उन्होंने 1.25 करोड़ के आसपास की राशि स्मारक के लिए एकत्र कर ली। स्वामी विवेकानंद के नाम पर कोई भी अपने आपको रोक नहीं पाया।
323 सांसदों के हस्ताक्षर युक्त पत्र-निवेदन पंडित नेहरू और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम को दिया गया। इतने बड़े निवेदन पर किसी भी नेता के लिए प्रश्न उठाना अब ठीक नहीं लगता था, और किसी ने फिर उठाया भी नहीं।
शुरुआती अनुमति दी गई, जिसमें समय के साथ जब तमिलनाडु में सरकार बदली तो योजना में भी परिवर्तन होता गया और एक महान संत का भव्य स्मारक राष्ट्र को समर्पित किया गया। लगभग सात साल की मेहनत और सभी भारतीयों के योगदान से सितंबर 1970 में तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरी ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।
एकनाथ रानडे जब इस दुष्कर से समझे वाले कार्य में लगे थे, तो वे एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचे। उन्होंने लिखा- “राजनीति से मीलों दूर प्रत्येक व्यक्ति में भारतीयता को जागृत करना होगा और उनसे काम लेना होगा। प्रत्येक में भारतीयता, हिंदुत्व तथा वेदांत को जागृत करना है। किसी भी व्यक्ति की सतही चेतना के थोड़ा भीतर प्रवेश करके देखो तो आपको पता चलेगा अन्तःस्थल में वह इसी मातृभूमि का बच्चा है। वह पाश्चात्यवाद, रूसिवाद, आधुनिकता अथवा कोई बाद की बात कर सकता है, लेकिन वह मूल रूप से इसी धरती की संतान है और आप उसपर भरोसा कर सकते हैं।”
स्वामी जी के जीवन के तमाम संदेशों में एकनाथ रानडे को जो सबसे महत्वपूर्ण लगा, वह था कि वे कोई भगवान का अवतार नहीं थे, उन्होंने जो भी हासिल किया, एक आम आदमी की चुनौतियों की बीच में रहते हुए हासिल किया, और जो भी दिया, वह भी इसी समाज को दिया। इसीलिए जो भी लोग बदलाव के लिए किसी की प्रतीक्षा में बैठे हैं, वे स्वयं ही वदलाव के वाहक बन सकते हैं।
यही संदेश तो स्वामी जी ने बड़े संक्षिप्त रूप से दिया था कि सभी शक्तियाँ आपके भीतर ही हैं, आप कुछ भी कर सकते हैं और सब कुछ कर सकते हैं।